Saturday, 14 November 2009

मीठी मीठी यादें

बड़े दिनों से देवर जी की ख्वाइश थी कि मै हिन्दी में लिखूं हाल फिलहाल की भारत यात्रा, इस श्री गणेश के लिए अति उत्तम है

भारत जाना हमेशा एक निराला अनुभव होता है दोस्तों रिश्तेदारों से मिलना, बाज़ारों के चक्कर...हालाँकि हर बार कुछ कुछ एकता कपूर के नाटक कि तरह दिलचस्प और रक्तचाप बढ़ाने वाला हो ही जाता है लेकिन फिर भी.....

बच्चों के खिल खिले चेहरे देख कर ज़रूर दो किलो खून बढ़ जाता है फिर चाहे वो सड़क पर चलते वाहन रोक कर पटाखे चला रहे हों, पड़ोसी की छत पर अपनी रॉकेट की उड़ान देख रहे हों या चाचा के सामने बैठ कर स्कूटर चलाने का लुफ्त उठा रहे हों,  या जीप के पिछले  हिस्से में खड़े हो कर हवा खा रहे हों.लेकिन इस बार तो दीवाली के अलावा उन्होंने दिल्ली दर्शन भी किया.



काश अगर हम भी बच्चे होते ....हम तो कोल्हू के बैल बने हैं, धोबी के गधे ....दुनिया भर के धंधों में हमारी भारत यात्रा का मुख्य ध्येय था, एक ज़माने पहले खरीदी हुई दुकान को अपने नाम कराना. भारतवासी भली तरह वाकिफ होंगे की पैसों से खरीदी हुई खुद की चीज़ को सरकार  के नज़र में अपना केहेलवाने  के लिए कितने पापड बेलने पड़ते हैं.

हमने पने पापड़, दिल्ली हवाई अड्डे पर कदम रखने, के कई दिनों पहले से बेलने शुरू कर दिए थे। दिल्ली में रहने वाला हमारा छोटा भाई, फ़ोन पर हमारी आवाज़ सुन सुन कर पक गया था.  उस बेचारे ने जीजू का मान रखने के लिए बिल्डर, बैंक, वकील सबके चक्कर काटे लेकिन इसके बावजूद हम कुतुब मीनार को दूर से ही तरसती आंखों से देखते हुए , कमल मन्दिर से माफ़ी मांगते हुए, वकील के घर जो सुबह पहुंचे तो शाम को लौटे

वकील के घर,  हम जैसे कई लोग अपने फ्लैट की रजिस्ट्री के लिए बैठे थे. एक दम्पति अमेरिका से आये थे. हम सब एक दुसरे का परिचय ले और दे ही रहे थे की हस्ताक्षर के लिए पोथियाँ पकडा दी गयीं. बीसियों पन्ने और हर पन्ने पर बाएं हाथ के अंगूठे के निशान और हस्ताक्षर दोनों, दोनों जन के. काफी मेहनत और लगन से हम इस कार्य में जुट गए. कहाँ हस्ताक्षर हो रहें हैं, कागज़ पर क्या लिखा है, सही है या नहीं, इस सब की फुर्सत कहाँ.  चूँकि सब इस दलदल में फंसे थे, किसी ने यह सवाल उठाया भी नहीं की यह पुलिंदा हमे एक दिन पहले पढने के लिए देना तो था.

अब तक तो सब एक दुसरे को जानने लगे थे, स्याही, कलम से एक दुसरे की मदद भी कर रहे थे. तालाब के  दूसरे छोर पर अटकी नैया में बैठे सभी बड़ी जल्दी एकजुट हो जाते हैं. मंजिल एक हो तो हाथ अपने आप एक दूसरे को थाम लेते हैं.

फिर शुरू हुआ इंतज़ार का सिलसिला "हमारा आदमी कार्यालय में है, जैसे ही हमारा नंबर आएगा, हमे फ़ोन करेगा" फिर बिल्डर वाले  साहब से अमेरिका से आये हुए साहब ने पूछा "मोबाइल का बिल कंपनी देती है?" जवाब मिला "कहाँ साहब, बिल भी खुद देते हैं और मंदी की वजह से तनख्वाह भी ज़माने से नहीं बढ़ी."

मुझे समझ में नहीं आता की कुछ साल पहले, बिना मोबाइल के  कैसे काम चलता था. आजकल तो टैक्सी, धोबी, नाई, बढई....सब "व्यस्त हैं, कृपया इंतज़ार करें".  भारत के ये  छोटे स्तर के व्यवसायी, सी एन एन पर एक दिन चर्चा का विषय बने हुए थे. संवाद दाता सड़क  के किनारे  पर बैठ कर नकली दांत बनाने वाले और उनकी दक्षता पर टिपण्णी कर रही थी, जब उससे अहम् सवाल किया गया-"क्या कोई भी इंडिया में टैक्स देता है?" अच्छा
 सवाल है.

काफी देर के इंतज़ार के बाद उसी क्षण पचीस हज़ार रुपये की मांग की गयी- आपकी दुकान की मार्केट वैल्यू बढ़ गयी है, इसलिए स्टांप ड्यूटी भी. झट पट घर जाकर दोनों माताओं के बटुए टटोल कर हम फिर हाज़िर हुए बाएँ अंगूठे और कलम के साथ. वकील के यहाँ चौकीदारी  करने वाले चहचहाते पक्षी अपने पंख समेट कर मुरझाये से बैठे थे. पता लगा "साहब" दादरी गए हैं, बस किसी मिनट आने वाले हैं. जब तक साहबजी दुर्लभ बने हुए थे, हमने चाट और पान का मज़ा लिया. वापसी में हमारे साथ इंतज़ार करने वाले  मिल गए. सुबह वाले जोश में सब बोले "आपको पहले चाट खाने जाना था"

फिर हम एक कमरे का ग्रेटर नॉएडा प्राधिकरण का कार्यालय, वहां पहुंचे. एक तरफ पंखे के नीचे एक बाबू अपने सामने खुली पोथी और पीछे बंद पोथियों के ढेर के बीच बैठे थे. कमरे के बीच में पारदर्शी दीवार थी और उस दीवार में तीन छोटी छोटी खिड़किया थीं. दीवार के दूसरी तरफ दुर्लभ वस्तु यानी "साहब" बैठे थे, एसी में. हर खिड़की के पीछे एक बाबू  और सामने एक कुर्सी थी. बाबू  आवाज़ देते, हमे कुर्सी पर टिकाया जाता, डिजीटल कैमरा से हमारा चित्र और स्कैनर  से हमारे बाएं अंगूठे का निशान लिया जाता और फिर अगला नाम पुकारा जाता.

भूत शहर की पदवी पाने वाले, मंदी की मार से जूझते अमेरिकी शहर, डेत्रोइत से आये हुए साहब से रहा नहीं गया और बोल पड़े- "मंदी , यह  मंदी है ?" जींस पहने दम्पति ने कार्यालय के चारों ओर अस्थायी रूप से बने सैकडों नोटरी, वकील इत्यादि की दुकानों में  खड़े दर्जनों लोगों को नज़रंदाज़ करते हुए, एक दूसरे के कमर में हाथ डाल कर तस्वीर खिंचवाई. सब ने एक दूसरे को मुबारक बाद दी.


दूकान हमारे नाम हुई लेकिन योगदान बहुत सारे लोगों का था. हम सब मिल कर कवाब फैक्ट्री गए. कवाब फैक्ट्री के मेनू में से बीच की दाल  सब्जी का सिलसिला हटा देना चाहिए. पेट बेचारा तो नाना प्रकार के कवाब(शाकाहारी भी) से ही भर जाता है और फिर मिष्टान्न तो जैसे कैबरे करती हुई हेलन गा  रही हो "अब तो आजा" भला इसे यानी मिष्टान्न को कौन ना  कह सकता है. कुल्फी, फिरनी, जलेबी रबडी, गुलाब जामुन, शाही टुकडा....

हम वापस आ गए बाकी रह गयीं सिर्फ मीठी मीठी यादें!











Friday, 6 November 2009

Who am I?

When I was in Middle school in a small town in India we used to have visitors from the foreign land- a land filled with mystique in my then, soft clay like brain. The visitors, who were actually relatives travelling from South Africa, looked like us, but smelt different (mixed aroma of perfumes, aftershaves, shampoos..I can now guess), communicated nearly always only in English, brought gifts and were generally a very welcome break from the monotony of school and home for me.

But even though they loved to look around the town and marvel at the roadside dentist, optician, palmist, blacksmith, potter and florist at the "purana bazaar", some of them would insist on taking the long and often tiring journey by train, taxi, bullock cart and foot to my mum's village, which is where their great or greater grandad came from.

I am ashamed to say that I have not yet visited the village in question and as a little girl I was not able to understand, their need, to see for themselves, where they had originated from. Today I try to retrace that journey and realize it was probably a quest to answer the crucial question- "Who am I?".

Years ago people in England, would belong to a church, would be part of each other's lives in birth, death, sickness and marriage.But, as times changed and polygamous kings challenged the authority of churches and their views on divorce and abortion, numerous other churches came into being and today less than 1 in 10 people will call themselves Christian in England. Local commnunities have ceased to exist and politicians talk about mending broken society in Britain.

This has resulted in ironical situations. A British Airways employee went to court and lost her appeal to be able to openly wear her cross. A nurse faced disciplinary action for "offering" to pray for a very sick and old patient.

Yet, we have seen a resurgence of wavy beards, skull caps and hijabs, even amongst professionals like doctors and cricketers. Infection control has stripped Consultants of ties and jackets but the wavy beard is here to stay, in multicultural Britain.

Do religious doctrines, help people hold on to their faith in times when it comes under attack? Does it help answer the question about who they are, where do they come from, what do they believe in? Are youngsters attending Sunday School, less likely to play truant and be directionless?

We will never know. What we do know is that people are different and trying to club them together in the name of secularism and multiculturalism doesn't help. That is the reason, politicians continually and successfully play the various cards- race card, religion card, region card, caste card, class card, Europe card....all over the world.

People live an anonymous existence, especially in big cities and yet the need to belong to a group remains. The popularity of various groups on internet, a throbbing community today, is witness to this need.

We should recognize our need to belong....accept and celebrate our differences by practicing tolerance (quite successfully done in a majority of diverse India), rather than disregard our identities and try to be like each other (like the Hindu Indian NHS Consultant in the early 90s whose house was decorated like a market fair for the Christmas party he liked to host, all in an attempt to "fit in").